यह एक नया सौदा था क्योंकि विमानों की क़ीमत, संख्या और शर्तें बदल गईं
थी. अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण का आरोप है कि नरेंद्र मोदी ने नियमों का पालन नहीं किया.
सवाल ये है कि अगर यह नया ऑर्डर था तो नियमों के मुताबिक टेंडर क्यों जारी नहीं किए गए? यह भी पूछा जा रहा है कि इस फ़ैसले में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्यूरिटी की क्या भूमिका थी? अगर नहीं थी, तो क्यों नहीं थी?
तथ्य यह है कि डासो एविएशन के साथ सौदे की घोषणा होने के क़रीब एक साल बाद कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्यूरिटी ने इसे अपनी औपचारिक मंज़ूरी दी.
विमान की क़ीमत को लेकर सरकार संसद में जानकारी देने से कतराती रही है. सरकार ने विमान की कीमत बताने से यह कहते हुए इनकार किया कि यह सुरक्षा और गोपनीयता का मामला है. आरोप लगाने वाले बीजेपी से जुड़े रहे दोनों पूर्व कैबिनेट मंत्रियों का कहना है कि नियमों के मुताबिक, गोपनीयता सिर्फ़ विमान की तकनीकी जानकारी के बारे में बरती जाती है, कीमत के बारे में नहीं.
अरुण शौरी का कहना है कि लोकसभा में एक सवाल के जवाब में, रक्षा राज्य मंत्री डॉ. सुभाष भामरे ने 36 विमानों वाला सौदा होने से पहले बताया था कि एक विमान की कीमत 670 करोड़ रुपए के करीब होगी. अरुण शौरी पूछ रहे हैं कि हर विमान का दाम लगभग एक हज़ार करोड़ रुपए बढ़ गया है, अब एक विमान की कीमत 1600 करोड़ रुपए के क़रीब है.
क्या सरकार की ज़िम्मेदारी देश को यह बताना नहीं है कि ख़ज़ाने से लगभग 36 हज़ार करोड़ रुपए ज़्यादा क्यों ख़र्च हो रहे हैं? सरकार के मंत्रियों ने बचाव में कहा है कि विमान में बहुत सारे साज़ो-सामान और हथियार अलग से लगाए गए हैं इसलिए क़ीमत बढ़ी है.
संसद में दी गई जानकारी के आधार पर लोग आरोप लगा रहे हैं कि जो पिछला सौदा हुआ था उसमें सभी अतिरिक्त साज़ो-सामान और हथियारों की भी क़ीमत में शामिल थी. सरकार को बताना चाहिए कि क़ीमत का सच क्या है?
जिस दिन नरेंद्र मोदी ने पेरिस में विमान ख़रीद के समझौते पर हस्ताक्षर किए, वह तारीख़ थी 10 अप्रैल 2015. 25 मार्च 2015 को रिलायंस ने रक्षा क्षेत्र की एक कंपनी बनाई जिसे सिर्फ़ 15 दिन बाद लगभग 30 हज़ार करोड़ का ठेका मिल गया.
एक ऐसी कंपनी जिसने रक्षा उपकरण बनाने के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया है, दिल्ली मेट्रो हो या टेलीकॉम का बिज़नेस, कंपनी के ट्रैक रिकॉर्ड पर लगातार सवाल उठते रहे हैं, अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली कंपनी का ज़िक्र भारी क़र्ज़ की वजह से भी होता रहा है. ऐसे में फ्रांसीसी कंपनी अपनी मर्ज़ी से ऐसा पार्टनर क्यों चुनेगी यह एक पहेली है.
सौदे के समय फ्रांस के राष्ट्रपति रहे फ्रांस्वा ओलांद ने एक इंटरव्यू में कहा कि 'रिलायंस के नाम की पेशकश भारत की ओर से हुई थी, उनके सामने कोई और विकल्प नहीं था'. सफ़ाई में सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि यह 'राहुल-ओलांद की जुगलबंदी' है, एक 'साज़िश' है.
मोदी सरकार के मंत्रियों का कहना है कि इसमें सरकार का कोई रोल नहीं है, लेकिन क्या उसे 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' के गंभीर आरोप पर खुलकर अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करनी चाहिए? मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा है कि यह 'परसेप्शन' की लड़ाई है जिसमें कांग्रेस झूठ बोल रही है यानी जितने सवाल पूछे जा रहे हैं उनका जवाब देने की कोई ज़रूरत नहीं है, सिर्फ़ ये परसेप्शन बनाने की ज़रूरत है कि सरकार पाक-साफ़ है या कांग्रेस ज़्यादा गंदी है.
राहुल गांधी ने कहा है कि "मोदी ने देश के युवाओं और वायु सेना से तीस हज़ार करोड़ रुपए छीनकर अनिल अंबानी को दे दिए हैं." यह ऐसा आरोप है जिसे अब तक मौजूद जानकारी से साबित करना मुमकिन नहीं है लेकिन वे भी परसेप्शन की लड़ाई जीतने में लगे हुए हैं.
भारत में शायद ही कोई बड़ा रक्षा सौदा हुआ हो और उसमें घोटाले, दलाली और रिश्वतख़ोरी के आरोप न लगे हों लेकिन किसी भी मामले में आरोप साबित नहीं होते, सवालों के जवाब नहीं मिलते.
रफ़ाल मामले में भी क्या ऐसा ही होगा? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के जागरूक नागरिकों को टीवी पर 'तू चोर', 'तेरा बाप चोर' वाला ड्रामा देखकर संतोष करना होगा या परसेप्शन की लड़ाई में कुछ तथ्य और तर्क भी सामने आएँगे?
सवाल ये है कि अगर यह नया ऑर्डर था तो नियमों के मुताबिक टेंडर क्यों जारी नहीं किए गए? यह भी पूछा जा रहा है कि इस फ़ैसले में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्यूरिटी की क्या भूमिका थी? अगर नहीं थी, तो क्यों नहीं थी?
तथ्य यह है कि डासो एविएशन के साथ सौदे की घोषणा होने के क़रीब एक साल बाद कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्यूरिटी ने इसे अपनी औपचारिक मंज़ूरी दी.
विमान की क़ीमत को लेकर सरकार संसद में जानकारी देने से कतराती रही है. सरकार ने विमान की कीमत बताने से यह कहते हुए इनकार किया कि यह सुरक्षा और गोपनीयता का मामला है. आरोप लगाने वाले बीजेपी से जुड़े रहे दोनों पूर्व कैबिनेट मंत्रियों का कहना है कि नियमों के मुताबिक, गोपनीयता सिर्फ़ विमान की तकनीकी जानकारी के बारे में बरती जाती है, कीमत के बारे में नहीं.
अरुण शौरी का कहना है कि लोकसभा में एक सवाल के जवाब में, रक्षा राज्य मंत्री डॉ. सुभाष भामरे ने 36 विमानों वाला सौदा होने से पहले बताया था कि एक विमान की कीमत 670 करोड़ रुपए के करीब होगी. अरुण शौरी पूछ रहे हैं कि हर विमान का दाम लगभग एक हज़ार करोड़ रुपए बढ़ गया है, अब एक विमान की कीमत 1600 करोड़ रुपए के क़रीब है.
क्या सरकार की ज़िम्मेदारी देश को यह बताना नहीं है कि ख़ज़ाने से लगभग 36 हज़ार करोड़ रुपए ज़्यादा क्यों ख़र्च हो रहे हैं? सरकार के मंत्रियों ने बचाव में कहा है कि विमान में बहुत सारे साज़ो-सामान और हथियार अलग से लगाए गए हैं इसलिए क़ीमत बढ़ी है.
संसद में दी गई जानकारी के आधार पर लोग आरोप लगा रहे हैं कि जो पिछला सौदा हुआ था उसमें सभी अतिरिक्त साज़ो-सामान और हथियारों की भी क़ीमत में शामिल थी. सरकार को बताना चाहिए कि क़ीमत का सच क्या है?
जिस दिन नरेंद्र मोदी ने पेरिस में विमान ख़रीद के समझौते पर हस्ताक्षर किए, वह तारीख़ थी 10 अप्रैल 2015. 25 मार्च 2015 को रिलायंस ने रक्षा क्षेत्र की एक कंपनी बनाई जिसे सिर्फ़ 15 दिन बाद लगभग 30 हज़ार करोड़ का ठेका मिल गया.
एक ऐसी कंपनी जिसने रक्षा उपकरण बनाने के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया है, दिल्ली मेट्रो हो या टेलीकॉम का बिज़नेस, कंपनी के ट्रैक रिकॉर्ड पर लगातार सवाल उठते रहे हैं, अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली कंपनी का ज़िक्र भारी क़र्ज़ की वजह से भी होता रहा है. ऐसे में फ्रांसीसी कंपनी अपनी मर्ज़ी से ऐसा पार्टनर क्यों चुनेगी यह एक पहेली है.
सौदे के समय फ्रांस के राष्ट्रपति रहे फ्रांस्वा ओलांद ने एक इंटरव्यू में कहा कि 'रिलायंस के नाम की पेशकश भारत की ओर से हुई थी, उनके सामने कोई और विकल्प नहीं था'. सफ़ाई में सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि यह 'राहुल-ओलांद की जुगलबंदी' है, एक 'साज़िश' है.
मोदी सरकार के मंत्रियों का कहना है कि इसमें सरकार का कोई रोल नहीं है, लेकिन क्या उसे 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' के गंभीर आरोप पर खुलकर अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करनी चाहिए? मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा है कि यह 'परसेप्शन' की लड़ाई है जिसमें कांग्रेस झूठ बोल रही है यानी जितने सवाल पूछे जा रहे हैं उनका जवाब देने की कोई ज़रूरत नहीं है, सिर्फ़ ये परसेप्शन बनाने की ज़रूरत है कि सरकार पाक-साफ़ है या कांग्रेस ज़्यादा गंदी है.
राहुल गांधी ने कहा है कि "मोदी ने देश के युवाओं और वायु सेना से तीस हज़ार करोड़ रुपए छीनकर अनिल अंबानी को दे दिए हैं." यह ऐसा आरोप है जिसे अब तक मौजूद जानकारी से साबित करना मुमकिन नहीं है लेकिन वे भी परसेप्शन की लड़ाई जीतने में लगे हुए हैं.
भारत में शायद ही कोई बड़ा रक्षा सौदा हुआ हो और उसमें घोटाले, दलाली और रिश्वतख़ोरी के आरोप न लगे हों लेकिन किसी भी मामले में आरोप साबित नहीं होते, सवालों के जवाब नहीं मिलते.
रफ़ाल मामले में भी क्या ऐसा ही होगा? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के जागरूक नागरिकों को टीवी पर 'तू चोर', 'तेरा बाप चोर' वाला ड्रामा देखकर संतोष करना होगा या परसेप्शन की लड़ाई में कुछ तथ्य और तर्क भी सामने आएँगे?